गोस्वामी तुलसीदास

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गोस्वामी तुलसीदास

नाम :रामबोला दुबे
जन्म तिथि :11 August 1511
(Age 112 Yr. )
मृत्यु की तिथि :30 July 1623

व्यक्तिगत जीवन

धर्म/संप्रदाय सनातन
राष्ट्रीयता Indian
व्यवसाय कवि
स्थान कासगंज, उत्तर प्रदेश, भारत,

शारीरिक संरचना

आँखों का रंग काला

पारिवारिक विवरण

अभिभावक

पिता : आत्माराम दुबे
माता : हुलसी दुबे

वैवाहिक स्थिति Married
जीवनसाथी

रत्नावली

बच्चे/शिशु

पुत्र : तारक

गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी साहित्य के महान सन्त कवि थे। रामचरितमानस इनका गौरव ग्रन्थ है। इन्हें आदि काव्य रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि का अवतार भी माना जाता है।

श्रीरामचरितमानस का कथानक रामायण से लिया गया है। रामचरितमानस लोक ग्रन्थ है और इसे उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद विनय पत्रिका उनका एक अन्य महत्त्वपूर्ण काव्य है। महाकाव्य श्रीरामचरितमानस को विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में 46वाँ स्थान दिया गया। तुलसीदास जी स्मार्त वैष्णव थे।

जन्म

गोस्वामी तुलसीदास का जन्मस्थान विवादित है। अधिकांश विद्वानों व राजकीय साक्ष्यों के अनुसार इनका जन्म सोरों शूकरक्षेत्र, जनपद कासगंज, उत्तर प्रदेश में हुआ था। कुछ लोग इनका जन्म राजापुर जिला चित्रकूट में हुआ मानते हैं। सोरों उत्तर प्रदेश के कासगंज जनपद के अंतर्गत एक सतयुगीन तीर्थस्थल शूकरक्षेत्र है। वहां पं० सच्चिदानंद शुक्ल नामक एक प्रतिष्ठित सनाढ्य ब्राह्मण रहते थे। उनके दो पुत्र थे, पं० आत्माराम शुक्ल और पं० जीवाराम शुक्ल। पं० आत्माराम शुक्ल एवं हुलसी के पुत्र का नाम महाकवि गोस्वामी तुलसीदास था, जिन्होंने श्रीरामचरितमानस महाग्रंथ की रचना की थी। नंददास जी के छोटे भाई का नाम चँदहास था। नंददास जी, तुलसीदास जी के सगे चचेरे भाई थे। नंददास जी के पुत्र का नाम कृष्णदास था। नंददास ने कई रचनाएँ- रसमंजरी, अनेकार्थमंजरी, भागवत्-दशम स्कंध, श्याम सगाई, गोवर्द्धन लीला, सुदामा चरित, विरहमंजरी, रूप मंजरी, रुक्मिणी मंगल, रासपंचाध्यायी, भँवर गीत, सिद्धांत पंचाध्यायी, नंददास पदावली हैं।

बचपन

भगवान की प्रेरणा से शूकरक्षेत्र में रहकर पाठशाला चलाने वाले गुरु नृसिंह चौधरी ने इस रामबोला के नाम से बहुचर्चित हो चुके इस बालक को ढूँढ निकाला और विधिवत उसका नाम तुलसीदास रखा। गुरु नृसिंह चौधरी ने ही इन्हें रामायण, पिंगलशास्त्र व गुरु हरिहरानंद ने इन्हें संगीत की शिक्षा दी। तदोपरान्त बदरिया निवासी दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से इनका विवाह हुआ। एक पुत्र भी इन्हें प्राप्त हुआ, जिसका नाम तारापति/तारक था, जोकि कुछ समय बाद ही काल कवलित हो गया। रत्नावली के पीहर (बदरिया) चले जाने पर ये रात में ही गंगा को तैरकर पार करके बदरिया जा पहुंचे। तब रत्नावली ने लज्जित होकर इन्हें धिक्कारा। उन्हीं वचनों को सुनकर इनके मन में वैराग्य के अंकुर फूट गए और 36 वर्ष की अवस्था में शूकरक्षेत्र सोरों को सदा के लिए त्यागकर चले गए।

भगवान श्री राम जी से भेंट

कुछ काल राजापुर रहने के बाद वे पुन: काशी चले गये और वहाँ की जनता को राम-कथा सुनाने लगे। कथा के दौरान उन्हें एक दिन मनुष्य के वेष में एक प्रेत मिला, जिसने उन्हें हनुमान ‌जी का पता बतलाया। हनुमान ‌जी से मिलकर तुलसीदास ने उनसे श्रीरघुनाथजी का दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान्‌जी ने कहा- "तुम्हें चित्रकूट में रघुनाथजी दर्शन होंगें।" इस पर तुलसीदास जी चित्रकूट की ओर चल पड़े।

चित्रकूट पहुँच कर उन्होंने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि यकायक मार्ग में उन्हें श्रीराम के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि दो बड़े ही सुन्दर राजकुमार घोड़ों पर सवार होकर धनुष-बाण लिये जा रहे हैं। तुलसीदास उन्हें देखकर आकर्षित तो हुए, परन्तु उन्हें पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमान जी ने आकर जब उन्हें सारा भेद बताया तो वे पश्चाताप करने लगे। इस पर हनुमान जी ने उन्हें सात्वना दी और कहा प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे।

संवत्‌ 1607 की मौनी अमावस्या को बुधवार के दिन उनके सामने भगवान श्री राम जी पुनः प्रकट हुए। उन्होंने बालक रूप में आकर तुलसीदास से कहा-"बाबा! हमें चन्दन चाहिये क्या आप हमें चन्दन दे सकते हैं?" हनुमान ‌जी ने सोचा, कहीं वे इस बार भी धोखा न खा जायें, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा:

चित्रकूट के घाट पर, भइ सन्तन की भीर।

तुलसिदास चन्दन घिसें, तिलक देत रघुबीर॥

तुलसीदास भगवान श्री राम जी की उस अद्भुत छवि को निहार कर अपने शरीर की सुध-बुध ही भूल गये। अन्ततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चन्दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये।

संस्कृत में पद्य-रचना

संवत् १६२८ में वह हनुमान जी की आज्ञा लेकर अयोध्या की ओर चल पड़े। उन दिनों प्रयाग में माघ मेला लगा हुआ था। वे वहाँ कुछ दिन के लिये ठहर गये। पर्व के छः दिन बाद एक वटवृक्ष के नीचे उन्हें भारद्वाज और याज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए। वहाँ उस समय वही कथा हो रही थी, जो उन्होने सूकरक्षेत्र में अपने गुरु से सुनी थी। माघ मेला समाप्त होते ही तुलसीदास जी प्रयाग से पुन: वापस काशी आ गये और वहाँ के प्रह्लादघाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास किया। वहीं रहते हुए उनके अन्दर कवित्व-शक्ति का प्रस्फुरण हुआ और वे संस्कृत में पद्य-रचना करने लगे। परन्तु दिन में वे जितने पद्य रचते, रात्रि में वे सब लुप्त हो जाते। यह घटना रोज घटती। आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ। भगवान शंकर ने उन्हें आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा में काव्य रचना करो। तुलसीदास जी की नींद उचट गयी। वे उठकर बैठ गये। उसी समय भगवान शिव और पार्वती उनके सामने प्रकट हुए। तुलसीदास जी ने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। इस पर प्रसन्न होकर शिव जी ने कहा- "तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिन्दी में काव्य-रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होगी।" इतना कहकर गौरीशंकर अन्तर्धान हो गये। तुलसीदास जी उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर काशी से सीधे अयोध्या चले गये।

रामचरितमानस की रचना

संवत्‌ १६३१ का प्रारम्भ हुआ। दैवयोग से उस वर्ष रामनवमी के दिन वैसा ही योग आया जैसा त्रेतायुग में राम-जन्म के दिन था। उस दिन प्रातःकाल तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। दो वर्ष, सात महीने और छ्ब्बीस दिन में यह अद्भुत ग्रन्थ सम्पन्न हुआ। संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम-विवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।

इसके बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास जी काशी चले आये। वहाँ उन्होंने भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया। रात को पुस्तक विश्वनाथ-मन्दिर में रख दी गयी। प्रात:काल जब मन्दिर के पट खोले गये तो पुस्तक पर लिखा हुआ पाया गया-सत्यं शिवं सुन्दरम्‌ जिसके नीचे भगवान शंकर की सही (पुष्टि) थी। उस समय वहाँ उपस्थित लोगों ने "सत्यं शिवं सुन्दरम्‌" की आवाज भी कानों से सुनी।

इधर काशी के पण्डितों को जब यह बात पता चली तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बनाकर तुलसीदास जी की निन्दा और उस पुस्तक को नष्ट करने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भी भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो युवक धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं। दोनों युवक बड़े ही सुन्दर क्रमश: श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन करते ही चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भगवान के भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया और पुस्तक अपने मित्र टोडरमल (अकबर के नौरत्नों में एक) के यहाँ रखवा दी। इसके बाद उन्होंने अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति से एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की गयीं और पुस्तक का प्रचार दिनों-दिन बढ़ने लगा।

इधर काशी के पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्री मधुसूदन सरस्वती नाम के महापण्डित को उस पुस्तक को देखकर अपनी सम्मति देने की प्रार्थना की। मधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर अपनी ओर से यह टिप्पणी लिख दी-

आनन्दकानने ह्यास्मिंजंगमस्तुलसीतरुः।

कवितामंजरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥

इसका हिन्दी में अर्थ इस प्रकार है-"काशी के आनन्द-वन में तुलसीदास साक्षात तुलसी का पौधा है। उसकी काव्य-मंजरी बड़ी ही मनोहर है, जिस पर श्रीराम रूपी भँवरा सदा मँडराता रहता है।"

पण्डितों को उनकी इस टिप्पणी पर भी संतोष नहीं हुआ। तब पुस्तक की परीक्षा का एक अन्य उपाय सोचा गया। काशी के विश्वनाथ-मन्दिर में भगवान विश्वनाथ के सामने सबसे ऊपर वेद, उनके नीचे शास्त्र, शास्त्रों के नीचे पुराण और सबके नीचे रामचरितमानस रख दिया गया। प्रातःकाल जब मन्दिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्रीरामचरितमानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है। अब तो सभी पण्डित बड़े लज्जित हुए। उन्होंने तुलसीदास जी से क्षमा माँगी और भक्ति-भाव से उनका चरणोदक लिया।

मृत्यु

तुलसीदास जी जब काशी के विख्यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति विनय-पत्रिका लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया।

संवत्‌ १६८० में श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को तुलसीदास जी ने "राम-राम" कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया।

तुलसी-स्तवन

तुलसीदास जी की हस्तलिपि अत्यधिक सुन्दर थी लगता है जैसे उस युग में उन्होंने कैलोग्राफी की कला आती थी। उनके जन्म-स्थान राजापुर के एक मन्दिर में श्रीरामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड की एक प्रति सुरक्षित रखी हुई है।

रचनाएँ

अपने १२६ वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास ने कालक्रमानुसार निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों की रचनाएँ कीं -

गीतावली (1571), कृष्ण-गीतावली (1571), रामचरितमानस (1574), पार्वती-मंगल (1582), विनय-पत्रिका (1582), जानकी-मंगल (1582), रामललानहछू (1582), दोहावली (1583),वैराग्यसंदीपनी (1612), रामाज्ञाप्रश्न (1612), सतसई, बरवै रामायण (1612), कवितावली (1612),हनुमान बाहुक

इनमें से रामचरितमानस, विनय-पत्रिका, कवितावली, गीतावली जैसी कृतियों के विषय में किसी कवि की यह आर्षवाणी सटीक प्रतीत होती है - पश्य देवस्य काव्यं, न मृणोति न जीर्यति। अर्थात देवपुरुषों का काव्य देखिये जो न मरता न पुराना होता है।

लगभग साढ़े चार सौ वर्ष पूर्व आधुनिक प्रकाशन-सुविधाओं से रहित उस काल में भी तुलसीदास का काव्य जन-जन तक पहुँच चुका था। यह उनके कवि रूप में लोकप्रिय होने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। मानस जैसे वृहद् ग्रन्थ को कण्ठस्थ करके सामान्य पढ़े लिखे लोग भी अपनी शुचिता एवं ज्ञान के लिए प्रसिद्ध होने लगे थे।

रामचरितमानस तुलसीदास जी का सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ रहा है। उन्होंने अपनी रचनाओं के सम्बन्ध में कहीं कोई उल्लेख नहीं किया है, इसलिए प्रामाणिक रचनाओं के सम्बन्ध में अन्त:साक्ष्य का अभाव दिखायी देता है। नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ इस प्रकार हैं :

  • रामचरितमानस
  • रामललानहछू
  • वैराग्य-संदीपनी
  • बरवै रामायण
  • पार्वती-मंगल
  • जानकी-मंगल
  • रामाज्ञाप्रश्न
  • दोहावली
  • कवितावली
  • गीतावली
  • श्रीकृष्ण-गीतावली
  • विनय-पत्रिका
  • सतसई
  • छंदावली रामायण
  • कुंडलिया रामायण
  • राम शलाका
  • संकट मोचन
  • करखा रामायण
  • रोला रामायण
  • झूलना
  • छप्पय रामायण
  • कवित्त रामायण
  • कलिधर्माधर्म निरूपण
  • हनुमान चालीसा

‘एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स’ में ग्रियर्सन ने भी उपरोक्त प्रथम बारह ग्रन्थों का उल्लेख किया है।

कुछ ग्रंथों का संक्षिप्त विवरण

रामललानहछू

यह संस्कार गीत है। इस गीत में कतिपय उल्लेख राम-विवाह की कथा से भिन्न हैं।

गोद लिहैं कौशल्या बैठि रामहिं वर हो।

सोभित दूलह राम सीस, पर आंचर हो।।

वैराग्य संदीपनी

वैराग्य संदीपनी को माताप्रसाद गुप्त ने अप्रामाणिक माना है, पर आचार्य चंद्रवली पांडे इसे प्रामाणिक और तुलसी की आरंभिक रचना मानते हैं। कुछ और प्राचीन प्रतियों के उपलब्ध होने से ठोस प्रमाण मिल सकते हैं। संत महिमा वर्णन का पहला सोरठा पेश है -

को बरनै मुख एक, तुलसी महिमा संत।

जिन्हके विमल विवेक, सेष महेस न कहि सकत।।

बरवै रामायण

विद्वानों ने इसे तुलसी की रचना घोषित किया है। शैली की दृष्टि से यह तुलसीदास की प्रामाणिक रचना है। इसकी खंडित प्रति ही ग्रंथावली में संपादित है।

पार्वती-मंगल

यह तुलसी की प्रामाणिक रचना प्रतीत होती है। इसकी काव्यात्मक प्रौढ़ता तुलसी सिद्धांत के अनुकूल है। कविता सरल, सुबोध रोचक और सरस है। ""जगत मातु पितु संभु भवानी"" की श्रृंगारिक चेष्टाओं का तनिक भी पुट नहीं है। लोक रीति इतनी यथास्थिति से चित्रित हुई है कि यह संस्कृत के शिव काव्य से कम प्रभावित है और तुलसी की मति की भक्त्यात्मक भूमिका पर विरचित कथा काव्य है। व्यवहारों की सुष्ठुता, प्रेम की अनन्यता और वैवाहिक कार्यक्रम की सरसता को बड़ी सावधानी से कवि ने अंकित किया है। तुलसीदास अपनी इस रचना से अत्यन्त संतुष्ट थे, इसीलिए इस अनासक्त भक्त ने केवल एक बार अपनी मति की सराहना की है -

प्रेम पाट पटडोरि गौरि-हर-गुन मनि।

मंगल हार रचेउ कवि मति मृगलोचनि।।

जानकी-मंगल

विद्वानों ने इसे तुलसीदास की प्रामाणिक रचनाओं में स्थान दिया है। पर इसमें भी क्षेपक है।

पंथ मिले भृगुनाथ हाथ फरसा लिए।

डाँटहि आँखि देखाइ कोप दारुन किए।।

राम कीन्ह परितोष रोस रिस परिहरि।

चले सौंपि सारंग सुफल लोचन करि।।

रघुबर भुजबल देख उछाह बरातिन्ह।

मुदित राउ लखि सन्मुख विधि सब भाँतिन्ह।।

तुलसी के मानस के पूर्व वाल्मीकीय रामायण की कथा ही लोक प्रचलित थी। काशी के पंडितों से मानस को लेकर तुलसीदास का मतभेद और मानस की प्रति पर विश्वनाथ का हस्ताक्षर संबंधी जनश्रुति प्रसिद्ध है।

रामाज्ञा प्रश्न

यह ज्योतिष शास्त्रीय पद्धति का ग्रंथ है। दोहों, सप्तकों और सर्गों में विभक्त यह ग्रंथ रामकथा के विविध मंगल एवं अमंगलमय प्रसंगों की मिश्रित रचना है। काव्य की दृष्टि से इस ग्रंथ का महत्त्व नगण्य है। सभी इसे तुलसीकृत मानते हैं। इसमें कथा-श्रृंखला का अभाव है और वाल्मीकीय रामायण> के प्रसंगों का अनुवाद अनेक दोहों में है।

दोहावली

दोहावली में अधिकांश दोहे मानस के हैं। कवि ने चातक के व्याज से दोहों की एक लंबी श्रृंखला लिखकर भक्ति और प्रेम की व्याख्या की है। दोहावली दोहा संकलन है। मानस के भी कुछ कथा निरपेक्ष दोहों को इसमें स्थान है। संभव है कुछ दोहे इसमें भी प्रक्षिप्त हों, पर रचना की अप्रामाणिकता असंदिग्ध है।

कवितावली

कवितावली तुलसीदास की रचना है, पर सभा संस्करण अथवा अन्य संस्करणों में प्रकाशित यह रचना पूरी नहीं प्रतीत होती है। कवितावली एक प्रबंध रचना है। कथानक में अप्रासंगिकता एवं शिथिलता तुलसी की कला का कलंक कहा जायेगा।

गीतावली

गीतावली में गीतों का आधार विविध कांड का रामचरित ही रहा है। यह ग्रंथ रामचरितमानस की तरह व्यापक जनसम्पर्क में कम गया प्रतीत होता है। इसलिए इन गीतों में परिवर्तन-परिवर्द्धन दृष्टिगत नहीं होता है। गीतावली में गीतों के कथा - संदर्भ तुलसी की मति के अनुरूप हैं। इस दृष्टि से गीतावली का एक गीत लिया जा सकता है -

कैकेयी जौ लौं जियत रही।

तौ लौं बात मातु सों मुह भरि भरत न भूलि कही।।

मानी राम अधिक जननी ते जननिहु गँसन गही।

सीय लखन रिपुदवन राम-रुख लखि सबकी निबही।।

लोक-बेद-मरजाद दोष गुन गति चित चखन चही।

तुलसी भरत समुझि सुनि राखी राम सनेह सही।।

इसमें भरत और राम के शील का उत्कर्ष तुलसीदास ने व्यक्त किया है। गीतावली के उत्तरकांड में मानस की कथा से अधिक विस्तार है। इसमें सीता का वाल्मीकि आश्रम में भेजा जाना वर्णित है। इस परित्याग का औचित्य निर्देश इन पंक्तियों में मिलता है -

भोग पुनि पितु-आयु को, सोउ किए बनै बनाउ।

परिहरे बिनु जानकी नहीं और अनघ उपाउ।।

पालिबे असिधार-ब्रत प्रिय प्रेम-पाल सुभाउ।

होइ हित केहि भांति, नित सुविचारु नहिं चित चाउ।।

श्रीकृष्ण गीतावली

श्रीकृष्ण गीतावली भी गोस्वामीजी की रचना है। श्रीकृष्ण-कथा के कतिपय प्रकरण गीतों के विषय हैं।

हनुमानबाहुक

यह गोस्वामी जी की हनुमत-भक्ति संबंधी रचना है। पर यह एक स्वतंत्र रचना है। इसके सभी अंश प्रामाणिक प्रतीत होते हैं।

तुलसीदास को राम प्यारे थे, राम की कथा प्यारी थी, राम का रूप प्यारा था और राम का स्वरूप प्यारा था। उनकी बुद्धि, राग, कल्पना और भावुकता पर राम की मर्यादा और लीला का आधिपत्य था। उनक आंखों में राम की छवि बसती थी। सब कुछ राम की पावन लीला में व्यक्त हुआ है जो रामकाव्य की परम्परा की उच्चतम उपलब्धि है। निर्दिष्ट ग्रंथों में इसका एक रस प्रतिबिंब है।

दोहे

तुलसीदास के दोहे

दिएँ पीठि पाछें लगै सनमुख होत पराइ। तुलसी संपति छाँह ज्यों लखि दिन बैठि गँवाइ।।

अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं संपत्ति शरीर की छाया के समान है । इसको पीठ देकर चलने से यह पीछे पीछे चलता है, और सामने होकर चलने से दूर भाग जाता है । ( जो धन से मुँह मोड लेता है, धन की नदी उसके पीछे पीछे बहती चली आती है और जो धन के लिए सदा ललचाता रहता है, उसे सपने में पैसा कभी नहीं मिलता ) इस बात को समझकर घर मे ही दिन बिताओं ।


तुलसी अदभुत देवता आसा देवी नाम । सेएँ सोक समर्पई बिमुख भएँ अभिराम ।।

अर्थ – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि आशा देवी नाम की एक अदभुत देवी है, यह सेवा करने पर दुख देता है और विमुख होने पर सुख देता है ।


सोई सेंवर तेइ सुवा सेवत सदा बसंत । तुलसी महिमा मोह की सुनत सराहत संत ।।

अर्थ - तुलसीदास कहते है वही सेमलता पेड़ है और वहीं तोते है तो भी मोहवश वसंत ऋतु आने पर सदा उस पर मँडराये रहते है । इस बात को सुनकर संत लोग भी मोह की महिमा की सराहना करते हैं ।


ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार । केहि कै लोभ बिडंबना कीनिह न एहिं संसार ॥

अर्थ – तुलसीदास जी कहते हैं ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर, कवि, पण्डित और गुणों का धाम इस संसार में ऐसा कौन मनुष्य हैं, जिसकी लोभ ने मिट्टी पलीद न की हो ॥


ब्यापी रहेउ संसार महुँ माया कटक प्रचंड । सेनापति कामादि भट दंभ कपट पाषंड ।।

अर्थ – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि माया की प्रचंड सेना संसार भर मे फैल रहा हैं कामादि(काम, क्रोध, मद, मोह, और मत्सर) वीर इस सेना के सेनापति हैं और दम्भ, कपट, पाखण्ड उसके योद्धा है ।


तुलसी इस संसार में भाँति भाँति के लोग । सबसे हस बोलिए नदी नाव संजोग ॥

अर्थ – गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि इस संसार मे कई प्रकार के लोग रहते है । जिनका व्यवहार और स्वभाव अलग अलग होता है । आप सभी से मिलिए और बात करिए । जैसे नाव नदी से दोस्ती कर अपने मार्ग को पार कर लेता है । वैसे आप अपने अच्छे व्यवहार से इस भव सागर को पार कर लेंगे .

Readers : 340 Publish Date : 2023-07-21 05:21:27